क्या आपके मन में भी यह प्रश्न आया है कि भारत में रंगोली के कितने रूप प्रचलित हैं या रंगोली कितने प्रकार की होती है ? यदि हाँ, तो मेरे इस ब्लॉग को अंत तक ज़रूर पढ़ें।
हमारे देश के अलग-अलग क्षेत्रों में रंगोली को विभिन्न नामों से जाना जाता है। इनके रंग, आकृतियां, सांचे और उत्सव बदलने के साथ-साथ रंगोली के रूप भी बदलते हैं।
मैंने इस ब्लॉग में रंगोली के प्रकार से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी शामिल की है। आइये पढ़ना शुरू करें –
भारत में रंगोली के कितने रूप प्रचलित है – विस्तार से जानें
रूप एक – नाम अनेक, को सच करती रंगोली हर स्थान पर अपनी पहचान और बनावट बदलती है। इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि हमारे विविधताओं (Variations) वाले देश में एक कला के अनगिनत रूप भी हो सकते हैं।
हर एक राज्य में परंपराओं (Traditions), लोक कथाओं (Folk Tales) और प्रथाओं (Rituals) के बदलने के साथ-साथ रंगोली की शैली (Form) में भी परिवर्तन आता है।
यूँ तो रंगोली मुख्यतः – भूमि रेखांकन और भित्ति चित्र की तरह बनाई जाती है। अगर बात क्षेत्र आधारित वर्गीकृत (Classify) करने की हो तब यह अपने निम्न बहुप्रचलित (Popular) रूपों में देखने को मिलती है –
ऐपण/Aipan
सबसे पहले यह समझते हैं कि ऐपण का सम्बन्ध किस राज्य से है। ऐपण की उत्पत्ति अल्मोड़ा (Almora) में हुई लेकिन साक्ष्यों क अनुसार कुमाऊं (Kumaun) में चंद वंश के शासन के दौरान यह प्रथा तेज़ी से फली-फूली। इसलिए इसे लोकल आर्ट ऑफ उत्तराखंड (Local Art Of Uttrakhand) अथवा ऐपण आर्ट उत्तराखंड (Aipan Art Uttarakhand) के नाम से जाना जाता है।
ऐपण संस्कृत के ‘अर्पण‘ शब्द से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘सौंपना अथवा भेंट देना’ होता है।
उत्तराखंड की कला मूल रूप से पूजा घर, प्रवेशद्वार और दीवारों पर बनाई जाती है, जिसके द्वारा भाग्य (Destiny) और उर्वरता (Fertility) आती है। ऐसी मान्यता है कि इसे बनाकर दैवीय आह्वान करने से बुराइयों को रोका जा सकता है और सौभाग्य लाया जा सकता है।
ऐपण के लिए (प्राकृतिक लाल मिट्टी) गेरू से आधार बनाकर उस पर (पिसे चावल का घोल) विस्वार से ज़रुरत के हिसाब से डिज़ाइन उकेरा जाता है। ऐपण कला में मुख्यतः शंख, लताएं, पुष्प, स्वस्तिक, देवी के चरणों, देवी-देवताओं व ज्यामितीय आकृतियों को शामिल किया जाता है।
ऐपण कला को मुख्यतः गणेश चतुर्थी (Ganesh Chaturthi), मकर संक्रांति (Makar Sankranti), कर्क संक्रांति (Kark Sankranti), महा शिवरात्रि (Maha Shivratri) एवं लक्ष्मी पूजन (Lakshmi Puja) आदि त्योहारों पर बनाना ज़रूरी माना जाता है।
अल्पना/Alpana
अल्पना की शुरुआत दक्षिण एशियाई क्षेत्र (South Asian Region) से हुई, जो कि वर्तमान समय में भारत का पश्चिम बंगाल (West Bengal) है। ऐसा माना जाता है कि इसकी शुरुआत कृषक समाज से हुई लेकिन इसने धीरे-धीरे पूरे क्षेत्र में अपनी जगह बनाई।
अल्पना शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘ओलंपेन’ से हुई, जिसका सामान्य अर्थ ‘लेप करना’ अथवा ‘पलस्तर’ होता है।
यह सामान्यत: त्योहार, व्रत, पूजा, उत्सव और विवाह आदि शुभ अवसरों पर बनाई जाती है।ऐसी मान्यता है कि अल्पना में बनाए जाने वाले कलात्मक चित्र, घरों को धन-धान्य से परिपूर्ण और सुरक्षित रखते हैं। इसलिए धार्मिक व सामाजिक अवसरों पर अल्पना का प्रचलन शुरू हुआ।
अल्पना डिज़ाइन को मुख्यतः पिसे हुआ चावल के घोल (Rice Paste), सूखे पत्तों से बने पाउडर (Powder) का रंग, गोंद (Gum), सिंदूर (Vermilion), चारकोल (Charcoal) एवं जलाई हुई मिट्टी आदि से बनाया जाता है।
अल्पना बनाने के लिए फर्श को गाय के गोबर से लीपकर, पिसे चावल के घोल से रूपरेखा तैयार की जाती है। इसके बाद कलाकार अपनी उंगलियों, छोटी टहनी या एक टुकड़े से रंग लगाता है। सूखने पर अल्पना में गाय के गोबर से बनी सतह पर चावल के घोल से बानी रूपरेखा उभरकर आती है।
अरिपन/Aripan
अरिपन, बिहार (Bihar) की स्थानीय लोक कला शैली है। बिहार की अरिपन कला की उत्पत्ति मुख्यतः मिथिला (Mithila) और मधुबनी (Madhubani) क्षेत्रों से मानी जाती है।
अरिपन का शाब्दिक अर्थ है, धब्बा। यह एक मुक्त हस्त कला (Free Hand Art), जिसे बनाने के लिए किसी फ्रेम (Frame) अथवा स्टैंसिल (Stencil) की ज़रुरत नहीं होती।
अरिपन बनाने के लिए चावलों को भिगोकर पेस्ट (Paste) तैयार किया जाता है, जिसे पिठार कहते हैं। महिलाएं दो अंगुलियों को पिठार में डुबोकर, गाय के गोबर अथवा चिकनी मिट्टी से लीपे गये आधार पर सुंदर ज्यामितीय पैटर्न (Geometric Pattern) बनाती हैं।
अरिपन को मुख्यतः धार्मिक अवसरों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, सामाजिक उत्सवों एवं त्यौहारों जैसे – छट्ठीयार ( बच्चे का छठी संस्कार), मुंडन, यगोपवीत संस्कार, विद्यारंभ और विवाह आदि पर बनाया जाता है।
अरिपन कई प्रकार से बनाई जाती है, जिनमें कुछ मुख्य – स्वस्तिक अरिपन, तुसारी अरिपन, अष्टदल अरिपन, पृथ्वी अरिपन, सांझ अरिपन, कल्याण पूजा का अरिपन, मौहक अरिपन, मधुश्रावणी अरिपन, गवहा संक्राति एवं कोजगरा अरिपन आदि काफी प्रचलित हैं।
लिखनु/Likhnu
आइये जानते हैं कि हिमाचल में रंगोली को किस नाम से जाना जाता है। भारत के देव भूमि कहे जाने वाले क्षेत्र हिमाचल (Himachal) में परंपरागत और सांस्कृतिक रंगोली को लिखनु नाम से जाना जाता है।
औपचारिक अवसरों पर यहाँ की महिलाएं ‘यंत्र‘ नामक आरेखीय डिज़ाइन बनाती हैं। फर्श चित्रकला के इस रूप को स्थानीय भाषा में ‘हैंगइयां‘ कहते हैं। इसके अतिरिक्त इसे – दहलीज़ पर देहर, अनुष्ठान स्थल पर चौक और लिखनु कहा जाता है।
लिखनु डिज़ाइन के लिए फर्श को साफ़ कर गाय के गोबर से लीपा जाता है। हल्का सूखने पर एक गोल पत्थर से इसे जलाते हैं लेकिन कभी-कभी महिलाएं गीले लेप पर उँगलियों के पोरों से पत्तेदार बॉर्डर (Border) बनाती हैं। इसके अतिरिक्त आधार बनाने के लिए भूरे रंग की मिट्टी का उपयोग भी किया जाता है, जिसे लोष्टी कहते हैं।
लिखनु सामग्री में मुख्यतः पिसे चावल का पेस्ट, पिसे गेहूं का पेस्ट और गोलू या मकोल नामक सफेद मिट्टी में से किसी एक का इस्तेमाल किया जाता है। मुख्यतः भारतीय रंगोली में उंगलियों द्वारा पैटर्न बनाये जाते हैं लेकिन यहाँ मकोल का इस्तेमाल करके एक विशेष तकनीकी अपने गई है।
इस कला को मुख्यतः लोहड़ी, नवरात्रि, काली पूजा, नाग पंचमी, जक्खा (यक्ष) पूजा, पांचाल भीष्म व्रत, तुलसी विवाह, दिवाली, नामकरण और विवाह आदि उत्सवों पर बनाया जाता है।
चौक पुराना/Chowk Poorana
चौक पुराना अथवा चौक बनाना, उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) की लोक कला के रूप में विकसित हुई। आज यह हमारे देश के विभिन्न राज्यों जैसे – पंजाब (Punjab), छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh), हरियाणा (Haryana), हिमाचल प्रदेश (Himachal Pradesh) और मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) आदि में भी बनाई जाती है।
चौक पुराना, दो शब्दों से मिलकर बना है, जिसमें चौक का अर्थ – घर का शुभ क्षेत्र और पुराना का अर्थ – फर्श अथवा दीवार पर चित्र बनाना है। चौक मुख्यतः आँगन, देहरी, बरोठा, चबूतरा, मुख्यद्वार, पूजा स्थल, संस्कार स्थल, अनुष्ठानिक स्थल एवं विवाह स्थल आदि स्थलों पर बनाई जाती है।
चौक बनाने के लिए सामान्यतः गेहूं का आटा (Wheat Flour), चावल का आटा (Rice Flour), हल्दी (Turmeric) और कुमकुम (Vermillion) का उपयोग किया जाता है।
चौक मुख्यतः चौकोर (Square), पंचकोणीय (Pentagonal), षष्टकोणीय (Hexagonal), नौ खण्डीय (Nine Segmented), आयताकार (Rectangular) और गोलाकार (Round Shape) आदि बनाये जाते हैं। इनमें फूल, पत्तियां, बिंदु, लकीरें, स्वस्तिक, मोर, त्रिशूल और कुम्भ आदि की प्रधानता रहती है।
कुछ मुख्य त्योहारों में चौक बनाना ज़रूरी है, जिनमें रक्षा बंधन, देवठान पूजा अथवा देवठान एकादशी, होली, भाई दूज और दीपावली शामिल हैं।
मुझे उम्मीद है, इस ब्लॉग को पढ़कर आप जान गए होंगे कि भारत में रंगोली के कितने रूप प्रचलित है। यदि इस विषय से जुड़ा आपका कोई प्रश्न है तो नीचे Comment Section में ज़रूर पूछें।
मेरा नाम प्रज्ञा पदमेश है। मैं इस प्यार से बने मंच – कारीगरी की संस्थापिका हूँ। अपने अनुभव को आप सभी के साथ साझा करना चाहती हूँ ताकि आप भी मेरी तरह कला के क्षेत्र में निपुण हो जाएं।